धारा 498 ए के दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट ने चेताया
घरेलू हिंसा की एफआईआर और चार्जशीट रद

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए (पत्नी के प्रति घरेलू हिंसा) के तहत अपराध के लिए दायर एफआईआर और चार्जशीट को खारिज कर दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि विशिष्टता की कमी वाले सामान्य आरोपों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चल सकता. जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने घनश्याम सोनी बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) और अन्य (2025 आईएनएससी 803) की याचिका पर सुनवाई के बाद यह फैसला सुनाया है.
कोर्ट ने क्रूरता के वास्तविक पीड़ितों की रक्षा करने की आवश्यकता को दोहराते हुए कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग के खिलाफ चेतावनी दी है. दिल्ली पुलिस की सब-इंस्पेक्टर ने 1998 में घनश्याम सोनी से शादी की. उसने आरोप लगाया कि शादी के तुरंत बाद, उसके पति और उसके परिवार, जिसमें उसकी माँ और पाँच भाभियाँ शामिल हैं ने दहेज के रूप में ₹1.5 लाख, एक कार और एक अलग घर की माँग की.
मांग पूरी करने के लिए उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया. आरोप लगाया गया कि उसे खंजर दिखाकर धमकाया गया और प्रेग्नेंसी के दौरान शारीरिक हमला किया गया. उसने 03.07.2002 को शिकायत दर्ज की, जिसके कारण 19.12.2002 को थाना मालवीय नगर, दिल्ली में धारा 498 ए, 406 और 34 आईपीसी के तहत एफआईआर नंबर 1098/2002 दर्ज किया गया. मजिस्ट्रेट ने 27.07.2004 को संज्ञान लिया.
सत्र न्यायालय ने 04.10.2008 के आदेश द्वारा सभी आरोपियों को इस आधार पर बरी कर दिया कि आरोपों की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी. हाईकोर्ट ने अप्रैल 2024 में उस आदेश को पलट दिया, आरोपों को बहाल कर दिया, जिससे आरोपियों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया.
कोर्ट के निष्कर्ष पीठ ने पाया कि सास और पांच ननदों के खिलाफ आरोप अस्पष्ट और सामान्य थे, जिनमें व्यक्तिगत कृत्यों या घटनाओं का विशिष्ट विवरण नहीं था. के. सुब्बा राव बनाम तेलंगाना राज्य (2018) 14 एससीसी 452 का हवाला देते हुए, न्यायालय ने जोर दिया कि दूर के रिश्तेदारों पर अकेले सर्वव्यापी आरोपों के आधार पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है.
“यदि आरोपों और अभियोजन पक्ष के मामले को उसके वास्तविक रूप में लिया जाए, तो बिना किसी समय, तिथि या स्थान के स्पष्ट आरोपों के अलावा, अभियोजन पक्ष या शिकायतकर्ता द्वारा धारा 498ए आईपीसी के तहत “हिंसा” के तत्वों को प्रमाणित करने के लिए कोई भी दोषपूर्ण सामग्री नहीं मिली है.”
यह स्वीकार करते हुए कि एक पुलिस अधिकारी भी क्रूरता का शिकार हो सकता है, कोर्ट ने परिवार के सदस्यों को परेशान करने के लिए आपराधिक कानून के प्रावधानों के दुरुपयोग के खिलाफ चेतावनी दी. इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए, विशेष रूप से दूर के रिश्तेदारों के खिलाफ अंधाधुंध अभियोजन से बचना चाहिए.
“यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिकायतकर्ता ने राज्य का अधिकारी होने के नाते इस तरह से आपराधिक तंत्र शुरू किया है, जहां वृद्ध सास-ससुर, पांच बहनों और एक दर्जी को आरोपी बनाया गया है. क्रूरता के आरोपों के पीछे सच्चाई की संभावना के बावजूद, कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग करने की इस बढ़ती प्रवृत्ति की इस न्यायालय द्वारा बार-बार निंदा की गई है.”
इस प्रावधान के दुरुपयोग के संबंध में दारा लक्ष्मी नारायण एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य के हालिया फैसले में की गई टिप्पणी का हवाला दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने एफआईआर संख्या 1098/2002 और 27.07.2004 की चार्जशीट को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया कि विशिष्ट आरोपों और सबूतों की कमी के कारण मुकदमे को आगे बढ़ाना दमनकारी और अन्यायपूर्ण होगा. कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि हालांकि शिकायत समय सीमा के भीतर दायर की गई थी, लेकिन आरोप इतने अस्पष्ट और असमर्थित थे कि आपराधिक मुकदमे को उचित नहीं ठहराया जा सकता.
पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि वास्तविक पीड़ितों की सुरक्षा और आधारहीन अभियोजन के माध्यम से आरोपियों को परेशान करने से रोकने के बीच संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए.