गवाही के साक्ष्य से पुष्टि पर मिली सजा बरकरार
1983 की घटना में जीवित आरोपियों को उम्रकैद की सजा की पुष्टि, अपील खारिज

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि किसी गवाह के बयान को सिर्फ इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वह मृतक का करीबी रिश्तेदार है.चश्मदीद की गवाही को केवल मृतक से रिश्ते के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने हत्या आरोपियों को सत्र अदालत से मिली उम्रकैद की सजा की पुष्टि करते हुए बहाल रखी है और सजा के खिलाफ अपील खारिज कर दी है.
गाजियाबाद में सामने आया था केस
यह आदेश जस्टिस विवेक कुमार बिड़ला और जस्टिस नंद प्रभा शुक्ला की बंच ने अत्तर सिंह और अन्य की अपील पर दिया. गाजियाबाद निवासी ब्रह्मजीत ने 28 अक्तूबर 1981को अपने पिता की हत्या करने के आरोप में एफआईआर दर्ज कराया. ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. ट्रायल व अपील विचाराधीन रहते कई आरोपियों का निधन हो गया. जीवित आरोपियों बनी सिंह, ओम प्रकाश, चित्तर, सरनी, तोता राम की अपील कोर्ट ने खारिज कर दी.
गवाही साक्ष्य समर्पित हो रिश्तेदार होने से फर्क नहीं
कहा गया कि गवाह मृतक के रिश्तेदार हैं. कोई स्वतंत्र गवाह नहीं है.ऐसे में इनकी गवाही को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता. कोर्ट ने इस दलील को मानने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि गवाही साक्ष्य समर्थित है तो उसके रिश्तेदार होने से साक्ष्य पर फर्क नहीं पड़ेगा. कोर्ट ने बनी सिंह, ओम प्रकाश, चित्तर, सेरनी, तोताराम की दोषसिद्धि की पुष्टि की. अपील खारिज कर दी. जमानतदारों को मुक्त करते हुए अपीलकर्ताओं को हिरासत में लेकर सजा काटने के लिए जेल भेजने का आदेश दिया.
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