41 साल बाद Murder आरोपी को मिली दोषमुक्ति
हत्या की साझा मंशा सिद्ध करने को सिर्फ ‘मारो साले को’ कहना काफी नहीं: HC

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी भी ठोस साक्ष्य के बिना केवल घटनास्थल पर उपस्थिति और “मारो साले को” कहकर ललकारना हत्या (Murder) के लिए धारा 34 भारतीय दंड संहिता के तहत सामान्य आशय को संदेह से परे साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इस कमेंट के साथ कोर्ट ने 41 साल पहले हत्या (Murder) के दोषी करार देकर उम्रकैद की सजा पाये आरोपी को बरी कर दिया है. यह आदेश जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस मदन पाल सिंह की बेंच ने विजई उर्फ बब्बन की आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए दिया है. कोर्ट ने झांसी के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के 20 अक्टूबर 1984 की उम्रकैद की सजा के फैसले को रद्द कर दिया है.
अभियोजन पक्ष के अनुसार 17 दिसंबर 1983 को दर्ज एफआईआर के अनुसार बशीर शाह (मृतक) और उसका दोस्त महेंद्र घर लौट रहे थे. रास्ते में उनकी मुलाकात विजई उर्फ बब्बन और सहअभियुक्त नरेंद्र कुमार से हुई. नरेंद्र ने बशीर शाह पर कांति नामक महिला के साथ उसके संबंधों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते हुए विवाद शुरू कर दिया.
बशीर ने आरोपों से इनकार किया. उसी समय विजई उर्फ बब्बन ने “मारो साले को” कहकर उकसाया. इसके तुरंत बाद सह अभियुक्त नरेंद्र ने चाकू निकालकर बशीर शाह पर तीन-चार घातक वार किए, जिससे बाद में उसकी मृत्यु (Murder) हो गई.
सेशन कोर्ट ने नरेंद्र कुमार और विजई उर्फ बब्बन को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत सामान्य आशय से हत्या (Murder) करने के लिए दोषी पाया. नरेंद्र कुमार की अपील के लंबित रहने के दौरान मृत्यु हो गई और उसके खिलाफ कार्यवाही समाप्त कर दी गई. हाईकोर्ट में विजई की ओर से एमिकस क्यूरी मित्र राजीव लोचन शुक्ल ने तर्क दिया कि घातक चोटें पहुंचाने (Murder) की मुख्य भूमिका केवल मृतक सह अभियुक्त नरेंद्र की थी. अपीलार्थी की भूमिका केवल उकसाने तक सीमित थी.

उन्होंने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष हत्या (Murder) के लिए पूर्व नियोजित योजना या साझा सामान्य आशय स्थापित करने में विफल रहा. यह भी दलील दी कि मारो साले को जैसे वाक्यांश अक्सर मामूली झगड़ों में उपयोग किए जाते हैं और इसका मतलब जरूरी नहीं कि मारने का इरादा हो, खासकर जब पूर्व-नियोजन का कोई सबूत नहीं था. अभियोजन की ओर से एजीए ने तर्क दिया कि सामान्य आशय मौके पर भी विकसित हो सकता है और अपीलार्थी का मारो साले को कहना साझा इरादे को प्रदर्शित करने वाला स्पष्ट कार्य था.
कोर्ट ने पाया कि दोनों पक्षों के बीच मुलाकात आकस्मिक घटना थी क्योंकि किसी भी गवाह ने यह नहीं कहा कि आरोपी घटनास्थल पर खड़े थे और मृतक का इंतजार कर रहे थे. यह तथ्य कि हमला गरमा-गरम बहस के बाद हुआ पूर्व-नियोजन की कमी को और इंगित करता है. कोर्ट ने प्राथमिकी और अदालती गवाही के बीच विसंगतियां पाईं. प्राथमिकी में केवल अपीलार्थी का मारो साले को का उल्लेख था, अदालत में परिवादी ने यह भी जोड़ा कि अपीलार्थी ने चाकू भी लहराया था और गवाहों को धमकी दी थी.
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कोर्ट ने इसे ट्रायल के दौरान किया गया एक भौतिक सुधार माना, जिसने अभियोजन कहानी पर संदेह पैदा किया. कोर्ट ने यह भी पाया कि केवल उपस्थिति सामान्य आशय स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं है. कोर्ट ने उस गवाही पर प्रकाश डाला जिसमें यह कहा गया था कि अपीलार्थी और मुख्य हमलावर (Murder) के एक ही महिला के संबंध में परस्पर विरोधी हित थे, जिससे यह असंभव हो जाता है कि वे मृतक को मारने का इरादा साझा करेंगे.
कोर्ट ने दोहराया कि उकसावे का सबूत अपनी प्रकृति में कमजोर सबूत होता है. कोर्ट ने कहा कि “मारो साले को” शब्द अस्पष्ट हैं और “यह नहीं कहा जा सकता कि उसने अपने साथियों को मारने (Murder) के लिए उकसाया था. कोर्ट ने अपीलार्थी के खिलाफ सबूतों को कमजोर और संदेह से परे सबूत के मानक को पूरा करने के लिए नकाफी पाते हुए, अपील मंजूर कर ली.
कोर्ट ने कहा कि अपीलार्थी की भूमिका सामान्य उकसावे की है, जो एक कमजोर सबूत है. इतने कमजोर सबूतों पर अभियुक्त को संदेह से परे सबूत की कसौटी पर इतने जघन्य अपराध (Murder) के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. इसी के साथ कोर्ट ने दोषसिद्धि और सजा को रद्द करते हुए विजई उर्फ बब्बन को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसे तत्काल जेल से रिहा करने का निर्देश दिया.