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27 वर्षों की चुप्पी पर ‘लॉ पब्लिशर्स को Family Business dispute में राहत से इंकार

हाईकोर्ट ने कहा: कानून सतर्क लोगों की ही करता है मदद

27 वर्षों की चुप्पी पर ‘लॉ पब्लिशर्स को Family Business dispute में राहत से इंकार

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मेसर्स ला पब्लिशर्स नामक प्रतिष्ठित कानूनी प्रकाशन Business को लेकर चल रहे पारिवारिक समझौता dispute में दायर अपील  खारिज कर दी है. अपील में अंतरिम व्यादेश जारी करने की मांग की गई थी, जिसे कोर्ट ने 27 वर्षों की अनुचित चुप्पी और देरी के आधार पर अस्वीकार कर दिया. चीफ जस्टिस अरुण भंसाली और जस्टिस क्षितिज शैलेन्द्र की बेंच ने कहा कि अपीलकर्ता स्मृति ‘स्लीपिंग पार्टनर के रूप में स्वयं को दर्शाने में असफल रहीं, और उनकी याचिका में न तो प्रथमदृष्टया बल था, न ही संतुलन का आधार और न ही कोई अपूरणीय क्षति की संभावना थी.

मामला पारिवारिक Business में हिस्सेदारी के दावे का है, तीन दशक की चुप्पी के बाद बिना ठोस कानूनी पक्ष के अदालत का दरवाजा खटखटाया है. विभा सागर ने दावा किया था कि वह 1976 से मेसर्स ला पब्लिशर्स  की साझेदार रही हैं. उन्होंने यह आरोप लगाया कि उनके पारिवारिक सहयोगी (Business Partner), जिनमें वीरेंद्र सागर और उनके परिवारजन शामिल हैं, वे इलाहाबाद की बहुमूल्य अचल संपत्तियों को उनकी अनुमति के बिना स्थानांतरित करने की योजना बना रहे हैं.

27 वर्षों की चुप्पी पर ‘लॉ पब्लिशर्स को Family Business dispute में राहत से इंकार

उन्होंने आर्बिट्रेशन एवं कंसिलिएशन एक्ट की धारा 9 के अंतर्गत अंतरिम राहत की मांग की थी जिसमें किराये की आय को कोर्ट में जमा कराने और संपत्ति के स्थानांतरण पर रोक की प्रार्थना की गई थी. जब निचली वाणिज्यिक अदालत ने इस याचिका को खारिज कर दिया तब उन्होंने धारा 37 के तहत उच्च न्यायालय में अपील की.

एडवोकेट प्रियंका मिधा, अभिषेक घोष और राम कौशिक,अपीलकर्ता विभा सागर की ओर से पेश हुए, ने तर्क दिया कि विभा सागर साझेदारी (Business Partner) से कभी नहीं हटी और 1996 की साझेदारी विलेख अब भी लागू है. उन्होंने यह भी कहा कि उनके नाम पर किसी भी सेवानिवृत्ति की सूचना, लेखा-जोखा निपटान, या किसी प्रकार का अधिकार-त्याग दस्तावेज रिकॉर्ड में नहीं है.

उन्होंने साझेदारी कानून की धारा 32(ग) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 की धारा 112 का हवाला दिया. सीनियर एडवोकेट वीके सिंह और एडवोकेट वीके मिश्रा, अंकुर आजाद और शाश्वत आनंद, जो कि लॉ पब्लिशर्स (प्रतिवादीगण), वीरेंद्र सागर और उनके परिजन (Business Partner) की ओर से उपस्थित थे, ने जोर देकर कहा कि विभा सागर 15 अप्रैल 1996 को स्वेच्छा से फर्म से सेवानिवृत्त हो गई थीं, और उसके बाद उनकी कोई भागीदारी (Business Partner) नहीं रही. उन्होंने वर्ष 1999, 2014 और 2021 की साझेदारी विलेखों का हवाला दिया, जिनमें विभा सागर का नाम सम्मिलित नहीं है.

उनका तर्क था कि 27 साल बाद संपत्तियों के स्थानांतरण के समय पर अचानक किए गए दावे का कोई विधिक या नैतिक आधार नहीं है. नींद से जागकर न्याय की याचना स्वीकार्य नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता अपने अधिकारों को लेकर दशकों तक मौन रहीं और अब अचानक उत्पन्न हुई उनकी मांग को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता.

“27 वर्षों की अनुचित और अकारण देरी यह सिद्ध करती है कि अपीलकर्ता के पक्ष में कोई प्रथमदृष्टया केस नहीं बनता.”

27 वर्षों की चुप्पी पर ‘लॉ पब्लिशर्स को Family Business dispute में राहत से इंकार

कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि अपीलकर्ता की भविष्य में किसी अन्य कार्यवाही में साझेदारी (Business Partner) सिद्ध होती है, तो वे आर्थिक मुआवजा प्राप्त कर सकती हैं, और इसलिए वर्तमान में किसी प्रकार की अपूरणीय क्षति का प्रश्न नहीं उठता.

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि 16 अप्रैल 1996 की दो विरोधाभासी साझेदारी विलेखों (Business Partner) की वैधता पर कोई निर्णायक टिप्पणी नहीं की जा रही है, और यह विषय पंचाट अधिनियम की धारा 11 की लंबित कार्यवाही अथवा किसी दीवानी वाद में निर्णय हेतु खुला रहेगा. कहा कि अंतरिम राहत के रूप में जो मांगे की गई थीं, वे मूलतः अंतिम राहत की प्रकृति की थीं, और ऐसे मामलों में लंबी चुप्पी के बाद कोर्ट से त्वरित सहायता की अपेक्षा न्यायसंगत नहीं है.

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