Crime की गंभीरता किशोर की जमानत अर्जी खारिज करने का आधार नहीं हो सकती, 13 मार्च का आदेश रद
आजमगढ़ के बाल संरक्षण गृह में बंद है बाल अपचारी

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि केवल Crime की गंभीरता किसी किशोर की जमानत अर्जी खारिज करने का आधार नहीं हो सकती है. कोर्ट ने कहा अपराध (Crime) के आरोपी किशोर की जमानत तीन आधारों पर निरस्त की जा सकती है. पहला छूटने के बाद वह अपराधी से मिल सकता है. दूसरा रिहाई से उसको नैतिक, शारीरिक व मानसिक खतरा हो और तीसरे रिहाई न्याय हित के खिलाफ हो.
अधीनस्थ अदालत ने मनमाने निष्कर्ष के आधार पर जमानत देने से इंकार कर दिया है. कोर्ट ने सशर्त जमानत मंजूर करते हुए 20 हजार के मुचलके व दो प्रतिभूति पर रिहाई का आदेश दिया है. यह आदेश जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने अपराध (Crime) के तथ्यो व परिस्थितियों पर विचार करते हुए दिया है आजमगढ़ के नाबालिग पर नाबालिग से दुष्कर्म का आरोप है. वह 1 अक्टूबर 23 से बाल संरक्षण गृह मे कैद है.
न्यायालय ने किशोर न्याय बोर्ड, आजमगढ़ द्वारा 13 मार्च 2024 को पारित आदेश और स्पेशल जज (पॉक्सो एक्ट), आजमगढ़ द्वारा 23 मई 2024 को पारित आदेश को रद्द कर दिया, जिन्होंने जमानत याचिका को खारिज कर दिया था. आजमगढ़ के कोतवाली थाने में आरोपी पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363, 366, 376, 328, 506 और पॉक्सो एक्ट की धारा 3/4(2) के तहत मामला दर्ज किया गया था.

पुनरीक्षणकर्ता के वकील जनार्दन यादव और उपेंद्र कुमार राय ने दलील दी कि कथित घटना (Crime) की तारीख को आरोपी’ की उम्र 13 साल, 8 महीने और 22 दिन थी. कहा कि उसे Crime में झूठा फंसाया गया है. उसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है. मुकदमे के जल्दी समाप्त होने की कोई उम्मीद नहीं है और वह अत्यधिक लंबी अवधि से बाल संरक्षण गृह में बंद है. वकील ने तर्क दिया कि जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट, 2000 (जिसे ‘अधिनियम’ कहा गया है) की धारा 12 के तहत जमानत से इनकार करने के लिए कोई भी आधार उपलब्ध नहीं है.
राज्य के वकील ने वर्तमान आपराधिक पुनरीक्षण का विरोध किया और प्रस्तुत किया कि घटना (Crime) सत्य है और यह कहना गलत है कि जुवेनाइल के खिलाफ लगाए गए आरोप झूठे या प्रेरित हैं. उन्होंने जुवेनाइल की जमानत खारिज करने वाले आदेशों में दर्ज निष्कर्षों पर भी भरोसा किया और प्रस्तुत किया कि वर्तमान पुनरीक्षण को खारिज कर दिया जाना चाहिए.
न्यायालय ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि यह विवादित नहीं है कि पुनरीक्षणकर्ता एक जुवेनाइल है और अधिनियम के प्रावधानों के लाभों का हकदार है. अधिनियम की धारा 12 के तहत, जुवेनाइल की जमानत की प्रार्थना केवल तभी खारिज की जा सकती है यदि यह मानने के उचित आधार हों कि जुवेनाइल की रिहाई उसे किसी ज्ञात अपराधी के संपर्क में लाएगी या उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे में डालेगी या उसकी रिहाई से न्याय के उद्देश्य विफल हो जाएंगे.

कोर्ट ने यह भी कहा कि अपराध (Crime) की गंभीरता जमानत खारिज करने का आधार नहीं है, और यह जुवेनाइल को जमानत देने पर विचार करते समय एक प्रासंगिक कारक नहीं है. कोर्ट ने शिव कुमार उर्फ साधु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2010 (68) एसीसी 616 (एल.बी.) में भी ऐसा ही कहा था और इसे इस न्यायालय के बाद के निर्णयों में लगातार पालन किया गया है.
न्यायाधीश ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया कि यह काफी हद तक निर्विवाद है कि जुवेनाइल घटना की तारीख पर एक जुवेनाइल था. उसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है, और वह अत्यधिक लंबी अवधि से हिरासत में है, क्योंकि अधिनियम द्वारा परिकल्पित समय-सीमा के भीतर मुकदमा समाप्त नहीं हुआ है. इसके अलावा, अधिनियम की धारा 12 में उल्लिखित कोई भी कारक या परिस्थिति मौजूद नहीं है जो जुवेनाइल को इस स्तर पर जमानत देने से वंचित कर सके.
जुवेनाइल के पिता ने अधिनियम की धारा 12 में व्यक्त वैधानिक चिंताओं को दूर करने का वचन दिया है, जैसे कि उसकी रिहाई पर जुवेनाइल की सुरक्षा और भलाई. इन सभी पहलुओं पर विचार करते हुए, अदालत ने पाया कि निचली अदालत का निर्णय कानून के विपरीत त्रुटिपूर्ण हैं. परिणामस्वरूप, उन आदेशों को रद्द कर दिया गया. साथ ही जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया.