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रजिस्ट्रार पर sexual harassment का आरोप लगाने के बाद बर्खास्त कर्मचारी को बहाल करने का आदेश

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रद किया बर्खास्तगी का आदेश

रजिस्ट्रार पर sexual harassment का आरोप लगाने के बाद बर्खास्त कर्मचारी को बहाल करने का आदेश

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने गौतमबुद्ध यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार पर sexual harassment का आरोप लगाने के बाद बर्खास्त वाइस चांसलर की निजी सचिव को सेवा से बर्खास्त किये जाने के आदेश को रद करते हुए उन्हें सेवा में बहाल करने का आदेश दिया है. जस्टिस मंजू रानी चौहान की बेंच ने माना कि केवल अपने नाम के आगे ‘डॉ.’ जोड़ना कदाचार नहीं था. वह भी इस स्थिति में जब यह फैक्ट जाँच का हिस्सा नहीं था.

बता दें कि इस महिला कर्मचारी को यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार के खिलाफ sexual harassment की शिकायत दर्ज कराने के बाद सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था. महिला ने अपनी बर्खास्तगी को हाई कोर्ट में चुनौती दिए जाने के बाद, इसे खारिज कर दिया गया और मामले को वापस भेज दिया गया. इसके बाद याचिकाकर्ता को फिर से बर्खास्त कर दिया गया. यह चार बार जारी रहा जब तक कि वर्तमान न्यायालय ने उन्हें बहाल करने का आदेश नहीं दिया.

“यह याचिकाकर्ता के अनावश्यक harassment का स्पष्ट मामला है, क्योंकि उनके खिलाफ सभी कार्यवाही रजिस्ट्रार के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के बाद ही शुरू की गई थी. कार्यवाही कथित तौर पर एक ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई शिकायत पर आधारित थी, जिसने वास्तव में शिकायत दर्ज नहीं कराई थी. घटनाओं का यह क्रम स्पष्ट रूप से रजिस्ट्रार के आचरण को दर्शाता है, जो विश्वविद्यालय में सेवा में बने रहे, जबकि याचिकाकर्ता को नौकरी से हटा दिया गया है.”
जस्टिस मंजू रानी चौहान

याचिकाकर्ता मीना सिंह को 2010 में एम.फिल., एम.एड. और एम.ए. की डिग्री के साथ-साथ गौतमबुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति के निजी सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था. 2018 में उनकी सेवाओं को कुलपति के स्टाफ ऑफिसर के रूप में नियमित कर दिया गया. 2020 में एक वकील द्वारा उनकी प्रारंभिक नियुक्ति में अनियमितताओं का आरोप लगाते हुए की गई शिकायत के आधार पर उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं. इस बर्खास्तगी के खिलाफ याचिकाकर्ता ने एक रिट याचिका दायर की. जिसका कुछ निर्देशों के साथ निपटारा कर दिया गया.

इस बीच कार्यवाहक रजिस्ट्रार ने याचिकाकर्ता के खिलाफ धारा 420, 467, 468, 471 आईपीसी के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज कराई. डिसिप्लिनरी जांच में, याचिकाकर्ता को कार्यवाहक रजिस्ट्रार से जिरह करने का मौका नहीं दिया गया और उसे अपने गवाह पेश करने की भी अनुमति नहीं दी गई. कार्यवाहक रजिस्ट्रार ने एक वकील के माध्यम से याचिकाकर्ता की नियुक्ति को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की. यह याचिका अब भी हाई कोर्ट में पेंडिंग है.

पहली रिट याचिका में हाई कोर्ट के आदेश के बाद, याचिकाकर्ता को दूसरा कारण बताओ नोटिस जारी किया गया. इसका उन्होंने जवाब दाखिल किया. 2022 में उन्हें फिर से सेवा से बर्खास्त कर दिया गया. मुकदमेबाजी के दूसरे दौर में, रिट न्यायालय ने सेवा समाप्ति आदेश को रद्द कर दिया और याचिकाकर्ता को दूसरे कारण बताओ नोटिस का नया जवाब दाखिल करने की छूट प्रदान की. प्रबंधन बोर्ड को याचिकाकर्ता को व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर प्रदान करने का निर्देश दिया गया. परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ता को सुनवाई का अवसर प्रदान किया गया. हालाँकि, उनके उत्तर पर विचार किए बिना, उनकी सेवाएँ फिर से समाप्त (harassment) कर दी गईं.

इसके बाद, याचिकाकर्ता ने सेवा समाप्ति आदेश को रद्द करने के लिए तीसरी बार हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. रिट न्यायालय ने फिर से आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को सुनवाई का नया अवसर और जवाब दाखिल करने का अवसर दिया जाए. अपने उत्तर में, याचिकाकर्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि उनकी प्रारंभिक नियुक्ति में उनकी पीएचडी डिग्री की कोई भूमिका नहीं थी और उन्हें रजिस्ट्रार से जिरह करने का कोई अवसर नहीं दिया गया था.

Harassment का आरोप लगाने के 2023 में फिर से सेवा से बर्खास्त

2023 में उन्हें फिर से सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, आदेश को फिर से चुनौती दी गई और सेवा समाप्ति को आंशिक रूप से रद्द कर दिया गया. उन्हें फिर से एक कारण बताओ नोटिस जारी किया गया, जिसका उन्होंने जवाब दाखिल किया और प्रबंधन बोर्ड की दो बार बैठकों में उपस्थित हुईं.

याचिकाकर्ता को एक अधिवक्ता एससी त्रिपाठी ने उपस्थित होने के लिए कहा. पूछने पर, यूनिवर्सिटी ने उन्हें संदर्भ की शर्तों और नई समिति के गठन के बारे में सूचित किया. जाँच कार्यवाही समाप्त होने के बाद, याचिकाकर्ता को फिर से सेवा से बर्खास्त कर दिया गया. उन्होंने चौथे सेवा समाप्ति आदेश के खिलाफ फिर से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया.

कोर्ट ने पाया कि विवादित आदेश इस आधार पर पारित किया गया था कि याचिकाकर्ता ने अपनी पीएचडी की डिग्री में जालसाजी की थी और अपने नाम के आगे गलत तरीके से ‘डॉ.’ जोड़ लिया था. कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता ने विशेष रूप से दावा किया था कि उन्होंने नियुक्ति के दौरान यूनिवर्सिटी के समक्ष पीएचडी की डिग्री प्रस्तुत नहीं की थी.

किसी ने उनके रिकॉर्ड में एक फर्जी डिग्री डाल दी थी जो विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के पास थी. याचिकाकर्ता ने अपने रिकॉर्ड में गलत तरीके से ‘डॉ.’ जोड़ लिया था, उसके नाम पर, कोर्ट ने पाया कि जाँच रिपोर्ट में इस बात के निर्णायक प्रमाण मौजूद थे कि वह वास्तव में पीएचडी कर रही थी. जाँच रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि यह साबित करना मुश्किल था कि याचिकाकर्ता ने अपनी डिग्री को गलत तरीके से प्रस्तुत करके नियमितीकरण प्राप्त किया था.

महाप्रबंधक, अपीलीय प्राधिकरण, बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य बनाम मोहम्मद निजामुद्दीन और रवि यशवंत भोईर बनाम कलेक्टर में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कदाचार की परिभाषा का हवाला देते हुए कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता ने केवल यह कहा था कि वह पीएचडी कर रही थी. उसने यह दावा नहीं किया था कि उसने इसे पूरा कर लिया है, इसके बावजूद उसे कदाचार का दोषी ठहराया गया.

यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता को निलंबित करने और उसे नौकरी से निकालने की पूरी प्रक्रिया रजिस्ट्रार के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराने के बाद शुरू की गई थी, कोर्ट ने माना कि यूनिवर्सिटी ने पूर्वनियोजित और प्रतिशोधात्मक (harassment) रुख अपनाते हुए याचिकाकर्ता को परेशान करने और निशाना बनाने के लिए ही कार्यवाही शुरू की थी.

यह मानते हुए कि उच्च डिग्री धारक को वरीयता देने के संबंध में कोई दिशानिर्देश नहीं है, अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता के लिए इस पद के लिए चयनित होने के लिए फर्जी पीएचडी डिग्री का सहारा लेने का कोई कारण नहीं था.

हमारी स्टोरी की वीडियो देखें…

“कोर्ट यह देखने को बाध्य है कि याचिकाकर्ता के खिलाफ ऐसे अपुष्ट आधारों पर कार्यवाही शुरू करना प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग (harassment) और दुर्भावना की बू आती है. जिस तरह से याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्यवाही की गई है, वह किसी भी कानूनी या तथ्यात्मक आधार के अभाव के बावजूद, यह दर्शाता है कि कार्रवाई सद्भावना से प्रेरित (harassment) नहीं थी. याचिकाकर्ता को प्रताड़ित करने के एकमात्र उद्देश्य से बाहरी कारणों से प्रेरित थी. कोर्ट की राय में ऐसा आचरण शक्ति का मनमाना प्रयोग है और इसे कानून में समर्थन नहीं दिया जा सकता.”

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