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भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को Land Acquisition Act की धारा 24 (2) के तहत रद्द नहीं किया जा सकता

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने माना है कि भूमि अधिग्रहण (Land Acquisition) की कार्यवाही जो पहले ही समाप्त हो चुकी है. इस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी बरकरार रखने का आदेश दिया जा चुका है, भूमि अधिग्रहण, (Land Acquisition) पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 की धारा 24 (2) के अंतर्गत पुनर्जीवित नहीं की जा सकती. 1990 के एक अधिग्रहण जिसे 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरकरार रखा गया था, पर विचार करते हुए जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस विनोद दिवाकर की पीठ ने कहा कि

 “2013 के अधिनियम की धारा 24(2) ऐसी समाप्त हो चुकी अधिग्रहण कार्यवाही (Land Acquisition) को पुनर्जीवित या रद्द करने पर लागू नहीं होती, जिसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पहले ही बरकरार रखा जा चुका है.”

भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को Land Acquisition Act की धारा 24 (2) के तहत रद्द नहीं किया जा सकता

1990 में उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने ‘गंगा नगर आवासीय व्यावसायिक योजना’ नामक एक विकास योजना के लिए मेरठ जिले में स्थित 246.931 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करने का प्रस्ताव रखा था. अधिग्रहण (Land Acquisition) की तत्काल आवश्यकता के कारण, इसने 1894 के अधिनियम की धारा 17(1) और धारा 17(4) का प्रयोग किया और धारा 5 के अंतर्गत जाँच को समाप्त कर दिया. कुछ काश्तकारों ने अपनी आपत्तियाँ प्रस्तुत कीं. 223 काश्तकारों में से 80% ने मुआवज़ा स्वीकार कर लिया.

याचिकाकर्ता के पूर्वजों सहित कुछ काश्तकारों ने अधिनियम की धारा 84 के तहत मुआवजे को चुनौती दी. 1997 में सरकार की तरफ से तय किया गया कि एक निश्चित हिस्से को छोड़कर अधिग्रहण (Land Acquisition) को रद्द कर दिया जाय. इस संबंध में प्रस्ताव भी पारित किया गया. 2002 में इस निर्णय सरकार की तरफ से वापस ले लिया गया. 2002 में लिये गये प्रस्ताव के विरुद्ध हाई कोर्ट में रिट याचिकाएँ दायर की गईं.

याचिकाओं में मेरठ विकास प्राधिकरण (एमडीए) को 1997 के आदेश के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया गया था. इस आदेश के विरुद्ध दीवानी अपीलों को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि चूँकि तात्कालिकता खंड लागू हो चुका था, इसलिए भूमि सभी भारों से मुक्त होकर राज्य में निहित हो गई थी. बाद में उसे मुक्त नहीं किया जा सकता था.

याचिका में रखे गये तथ्यों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा 22.12.2016 और 10.03.2017 में अधिसूचनाएं जारी की गईं. इसमें कुछ भूखंडों को गैर-अधिसूचित (Land Acquisition) किया गया. इसके बाद याचिकाकर्ता ने फिर से हाईकोर्ट  का दरवाजा खटखटाया और अपनी भूमि वापस करने और पुनः हस्तांतरित करने के लिए परमादेश जारी का आग्रह रिट में किया.

याचिका में यह अनुरोध भी किया गया था कि भूमि को गैर-अधिसूचित किया जाय क्योंकि 1990 का अधिग्रहण 2013 के अधिनियम (Land Acquisition) की धारा 24(2) के अनुसार समाप्त हो चुका था.

कोर्ट ने तथ्यों पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की तरफ से तर्क दिया गया कि प्राधिकारियों ने कभी कब्जा नहीं लिया. प्राधिकारियों ने यह दिखाने के लिए दस्तावेज प्रस्तुत किए कि कब्जा 2002 में लिया गया था और मुआवजा 2007 में न्यायालय में जमा किया गया था. कोर्ट ने यह भी पाया कि 80% काश्तकारों ने मुआवजा स्वीकार कर लिया था. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने माना कि याचिका रचनात्मक न्यायिक निर्णय द्वारा वर्जित थी.

 “जैसा कि इंदौर विकास प्राधिकरण (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जहां भूमि मालिक मुआवजे (Land Acquisition) में वृद्धि के लिए धारा 18 के तहत संदर्भ मांगते हैं, वे पलटकर यह तर्क नहीं दे सकते कि धारा 24(2) के तहत अधिग्रहण (Land Acquisition) समाप्त हो गया है. किसी को भी एक ही समय में अनुमोदन और अस्वीकृत करने की अनुमति नहीं है. वर्तमान याचिका रचनात्मक न्यायिकता के आधार पर और याचिकाकर्ताओं के अपने आचरण और उपाय के चयन, दोनों पर रोक लगा दी गई है.”

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इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल और अन्य पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने देखा कि इस मामले में कब्जा लेने और मुआवजा जमा करने संबंधी दोनों शर्तें पूरी हुई थीं. कोर्ट ने माना कि केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता अभी भी कुछ हिस्से पर काबिज हो सकता है जब अधिकारियों द्वारा प्रतीकात्मक कब्जा ले लिया गया था और पर्याप्त विकास किया गया था, यह कहने का आधार नहीं हो सकता.

“हम पाते हैं कि एक बार भूमि अधिग्रहित (Land Acquisition) हो जाने और अनिवार्य आवश्यकताओं का अनुपालन हो जाने के बाद जिसमें कब्जा ले लिया जाना भी शामिल है, भूमि सभी भारों से मुक्त होकर राज्य सरकार के पास आ जाती है. यह भी स्पष्ट निष्कर्ष दर्ज किया गया है कि यदि कुछ भूमि अप्रयुक्त रह भी जाती है, तो भी आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य बनाम सैयद अकबर में प्रतिपादित स्थापित कानून के मद्देनजर, अधिनियम, 1894 के प्रावधानों को लागू करके इसे पूर्व मालिक को वापस नहीं किया जाएगा या पुनः नहीं सौंपा जाएगा.”

Land Acquisition पर याचिकाकर्ताओं का दावा भी लापरवाही के कारण वर्जित था

सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था कि सरकार के पास निहित भूमि सभी भारों से मुक्त है और उसने भूमि को अधिसूचित न करने की राहत को अस्वीकार कर दिया था. कोर्ट ने कहा कि कल्पना की किसी भी सीमा से यह नहीं माना जा सकता है कि एक बार अधिग्रहण (Land Acquisition) को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंजूरी दे दिए जाने के बाद, राज्य सरकार के पास उसके बाद उस भूमि को अधिसूचित न करने का कोई विवेकाधिकार होगा जो पहले से ही अधिग्रहित है और राज्य में सभी भारों से मुक्त है. यह मानते हुए कि याचिकाकर्ताओं का दावा भी लापरवाही के कारण वर्जित था कोर्ट ने रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया.

Case : Ashok Kumar And Another V. State Of Up And 3 Others WRIT – C No. – 20190 of 2024

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