‘केवल नकदी की Recovery से दोष सिद्ध नहीं होता’, जस्टिस वर्मा के 5 सवाल
जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की याचिका

मानसून सत्र में महाभियोग का प्रस्ताव आने से पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा कथित (Recovery) को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये हैं. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गयी रिट याचिका में तर्क दिया है कि उनके आधिकारिक आवास के बाहरी हिस्से से नकदी की बरामदगी (Recovery) मात्र से उनका दोष सिद्ध नहीं होता. इटरनल जाँच समिति ने नकदी के स्वामित्व या परिसर से उसे कैसे निकाला, इसका निर्धारण नहीं किया है.
उन्होंने आंतरिक समिति के निष्कर्षों पर सवाल उठाते हुए तर्क दिया कि ये निष्कर्ष किसी ठोस सबूत के आधार पर नहीं, बल्कि कुछ अनुमानों और अटकलों के आधार पर दर्ज किए गए थे, जो उनके अनुसार, अस्वीकार्य नहीं हैं. जस्टिस वर्मा के अनुसार, समिति ने उन्हें पर्याप्त अवसर दिए बिना, पूर्व निर्धारित परिणाम प्राप्त करने के लिए जल्दबाजी में प्रक्रिया अपनाई.
जस्टिस वर्मा ने यह दावा करते हुए कि उन्होंने बाहरी हिस्से में नकदी नोटों की बरामदगी (Recovery) पर कोई विवाद नहीं किया है. केवल यह पता लगाना, स्वामित्व और नियंत्रण के बारे में किसी स्पष्ट सबूत के बिना, उन्हें किसी भी गलत काम से जोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है. उनके अनुसार, आंतरिक पैनल को निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर देने थे:
- आउटहाउस में नकदी कब, कैसे और किसके द्वारा रखी गई?
- आउटहाउस में कितनी नकदी रखी गई थी?
- क्या नकदी/मुद्रा असली थी या नहीं?
- आग लगने का कारण क्या था?
- क्या याचिकाकर्ता 15.03.2025 को “अवशेष मुद्रा” (Recovery) को “हटाने” के लिए किसी भी तरह से जिम्मेदार था?
- चूँकि रिपोर्ट में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए गए हैं, इसलिए इससे उसके विरुद्ध दोष का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता.
“सिर्फ़ नकदी की खोज (Recovery) से कोई निर्णायक समाधान नहीं निकलता। यह निर्धारित करना जरूरी है कि किसकी और कितनी नकदी (Recovery) मिली. ये पहलू सीधे तौर पर आरोपों की गंभीरता को दर्शाते हैं, और साथ ही, सुनियोजित घोटाले की संभावना को भी; आग लगने का कारण, चाहे जानबूझकर हो या दुर्घटनावश, और कथित तौर पर मुद्रा को “हटाने” में याचिकाकर्ता की संलिप्तता भी इसमें शामिल है. दिनांक 03.05.2025 की अंतिम रिपोर्ट इन महत्वपूर्ण प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती”
जस्टिस यशवंत वर्मा

इटरनल जांच कमेटी पैनल द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया को चुनौती देते हुए, जस्टिस वर्मा ने तर्क दिया कि समिति याचिकाकर्ता को अपनी तैयार की गई प्रक्रिया से अवगत कराने में विफल रही. उसे एकत्रित किए जाने वाले साक्ष्यों पर जानकारी देने का कोई अवसर नहीं दिया. उसकी अनुपस्थिति में गवाहों की जाँच की और उसे वीडियो रिकॉर्डिंग (उपलब्धता के बावजूद) के बजाय संक्षिप्त बयान दिए, चुनिंदा रूप से केवल “अपराध सिद्ध करने वाली” सामग्री का खुलासा किया.
सीसीटीवी फुटेज जैसे प्रासंगिक और दोषमुक्त करने वाले साक्ष्य (याचिकाकर्ता के अनुरोधों के बावजूद) को नजरअंदाज किया और एकत्रित करने में विफल रही. व्यक्तिगत सुनवाई के अवसरों से वंचित किया, याचिकाकर्ता के समक्ष कोई विशिष्ट/अस्थायी मामला नहीं रखा, याचिकाकर्ता को नोटिस दिए बिना अनुचित रूप से सबूत का भार उलट दिया, और याचिकाकर्ता द्वारा किसी भी प्रभावी बचाव में बाधा उत्पन्न की.
जस्टिस वर्मा ने आंतरिक प्रक्रिया पर भी सवाल उठाया, यह तर्क देते हुए कि इसका कोई वैधानिक समर्थन नहीं है और यह शक्तियों के सिद्धांत का उल्लंघन करती है, क्योंकि न्यायाधीशों को हटाना संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला है. चूँकि संविधान भारत के मुख्य न्यायाधीश को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर कोई अनुशासनात्मक अधिकार नहीं देता, इसलिए वे आंतरिक जाँच का आदेश नहीं दे सकते. जस्टिस वर्मा ने जाँच शुरू होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले के दस्तावेजों और फोटो/वीडियो के सार्वजनिक प्रकटीकरण पर भी आपत्ति जताई और कहा कि इससे उनकी प्रतिष्ठा को अपूरणीय क्षति हुई है.
उन्होंने कहा, अंतिम रिपोर्ट की सामग्री का मीडिया में लीक होना और उसके बाद समिति की रिपोर्ट की विकृत रिपोर्टिंग को अनदेखा कर दिया गया, जिससे प्रक्रियात्मक अनुचितता बनी रही, आंतरिक प्रक्रिया में निहित गोपनीयता का उल्लंघन हुआ और याचिकाकर्ता की प्रतिष्ठा और गरिमा को अपूरणीय क्षति पहुँचती रही.

बता दें कि यह मामला 14 मार्च को फायर ब्रिगेड की टीम द्वारा आग बुझाने के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास के बाहरी हिस्से में अचानक नोटों के विशाल ढेर की खोज (Recovery) से संबंधित है. इस खोज के बाद एक बड़ा सार्वजनिक विवाद पैदा होने के बाद, तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना ने तीन न्यायाधीशों की एक आंतरिक जांच समिति गठित की थी. कमेटी में जस्टिस शील नागू (तत्कालीन पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश), जस्टिस जीएस संधावालिया (तत्कालीन हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश), और जस्टिस अनु शिवरामन (न्यायाधीश, कर्नाटक उच्च न्यायालय) को शामिल किया गया था.
इस प्रकरण के सामने आने के बाद जस्टिस यशवंत वर्मा को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वापस भेज दिया गया और cash Recovery जांच लंबित रहने तक उनसे न्यायिक कार्य वापस ले लिया गया. समिति ने मई में सीजेआई खन्ना को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तीन न्यायाधीशों की आंतरिक जाँच समिति ने 14 मार्च को हुई आग की घटना के बाद न्यायमूर्ति वर्मा के आचरण को, जिसके कारण करेंसी नोट मिले (Recovery) थे, अस्वाभाविक बताया, जिससे उनके विरुद्ध कुछ प्रतिकूल निष्कर्ष निकले.
न्यायमूर्ति वर्मा और उनकी बेटी सहित 55 गवाहों और अग्निशमन दल के सदस्यों द्वारा लिए गए वीडियो और तस्वीरों के रूप में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की जाँच के बाद, समिति ने माना कि उनके आधिकारिक परिसर में नकदी पाई गई (Recovery) थी. यह पाते हुए कि भंडार कक्ष “न्यायमूर्ति वर्मा और उनके परिवार के सदस्यों के गुप्त या सक्रिय नियंत्रण” में था, समिति ने माना कि नकदी की उपस्थिति के बारे में स्पष्टीकरण देने का दायित्व न्यायमूर्ति वर्मा का था. चूँकि न्यायाधीश “साफ इनकार या साजिश का एक स्पष्ट तर्क” देने के अलावा, कोई उचित स्पष्टीकरण देकर अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकते थे, इसलिए समिति ने उनके खिलाफ कार्रवाई का प्रस्ताव करने के लिए पर्याप्त आधार पाया.
Case: XXX बनाम भारत संघ | डायरी संख्या 38664/2025
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