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‘बुजुर्ग Parent की उपेक्षा और क्रूरता अनुच्छेद 21 का उल्लंघन’

Parent की देखभाल करना पवित्र और नैतिक कर्तव्य के साथ वैधानिक दायित्व

'बुजुर्ग Parent की उपेक्षा और क्रूरता अनुच्छेद 21 का उल्लंघन'

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुजुर्ग माता-पिता (Parent ) की उपेक्षा और उनके साथ क्रूरता पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि वृद्ध माता-पिता (Parent ) के प्रति क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान के साथ जीवन जीने के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस प्रशांत कुमार की बेंच ने कहा कि बुजुर्ग माता-पिता (Parent ) की गरिमा, कल्याण और देखभाल की रक्षा करना एक पवित्र नैतिक कर्तव्य और वैधानिक दायित्व दोनों है.

बेंच ने कहा कि माता-पिता (Parent ) दान नहीं, बल्कि उन्हीं हाथों से सुरक्षा, सहानुभूति और साथ चाहते हैं. कोर्ट ने यह टिप्पणी एक 75 वर्षीय व्यक्ति (Parent ) द्वारा दायर रिट याचिका पर विचार करते हुए कीं. याचिकाकर्ता के पक्ष में 21,17,758/- रुपये की क्षतिपूर्ति राशि यथाशीघ्र जारी करने का निर्देश देते हुए कोर्ट ने याचिका निस्तारित कर दी है.

यह याचिका 75 वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिक (Parent ) ने दाखिल की थी. वह खुद कोर्ट में उपस्थित हुए और अपनी व्यथा रखी. उनके पुत्र विजय कुमार गुप्ता और संजय गुप्ता भी उपस्थित थे. दोनों पक्षों के बीच विवाद का कारण मुआवजे की राशि है. कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता और उसके बेटों के बीच का कटु और दुर्भाग्यपूर्ण संघर्ष है. यह बेहद परेशान करने वाला है कि मुआवजे की घोषणा होते ही याचिकाकर्ता अपने ही बच्चों द्वारा आक्रामकता और क्रूरता का शिकार हो गया.

'बुजुर्ग Parent की उपेक्षा और क्रूरता अनुच्छेद 21 का उल्लंघन'

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता अम्बरीश शुक्ला और राज्य प्रतिवादियों के अतिरिक्त मुख्य स्थायी अधिवक्ता आरके जायसवाल और प्रतिवादी संख्या 2 के अधिवक्ता आरके जायसवाल ने पक्ष रखा. रिट याचिका प्रतिवादी संख्या 3 को याचिकाकर्ता की अधिग्रहित भूमि और संरचना के संबंध में मुआवजा जारी करने का निर्देश देने की मांग करते हुए दायर की गई है, जिसकी राशि 16.01.2025 को भुगतान नोटिस के माध्यम से उचित और निर्धारित अवधि के भीतर 21,17,758/- रुपये निर्धारित की गई है. कोर्ट ने 17.07.2025 को मामले में अपना फैसला सुनाया है.

याचिका के मुताबिक मुआवज़ा तय हो जाने के बाद, रिश्ते (Parent ) में तनाव आ गया और न केवल उन्होंने अपने पिता से झगड़ा किया, बल्कि याचिकाकर्ता (Parent )  के खिलाफ सभी तरह के अत्याचार किए. याचिकाकर्ता को उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ा. उन्होंने कहा कि प्रापर्टी याचिकाकर्ता (Parent ) ने अपने संसाधनों से खड़ी की थी. इसमें उनके बेटों का कोई योगदान नहीं था. उन्होंने आगे तर्क दिया कि राशि, जो निर्धारित की गई है, पूरी तरह से याचिकाकर्ता (Parent ) के पक्ष में जारी की जानी है.

यह न्यायालय बच्चों द्वारा प्रदर्शित घोर उदासीनता और दुर्व्यवहार से अत्यंत व्यथित है. इससे बड़ी कोई सामाजिक विफलता या कोई गहरा नैतिक दिवालियापन नहीं हो सकता जब एक सभ्य समाज अपने बुजुर्गों (Parent )  की मूक पीड़ा से मुँह मोड़ लेता है. माता-पिता (Parent ) अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष अपने बच्चों के पोषण, शिक्षा और भविष्य के लिए कड़ी मेहनत करते हुए बिताते हैं, अक्सर बदले में कोई उम्मीद नहीं रखते. लेकिन अपने जीवन के अंतिम क्षणों में क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग से इसका बदला लिया जाना न केवल एक नैतिक अपमान है, बल्कि एक कानूनी उल्लंघन भी है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट

वृद्ध माता-पिता (Parent ) की उपेक्षा, क्रूरता या परित्याग भारत के संविधान के अनुच्छेद 21, सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार का उल्लंघन है. एक घर जो वृद्ध माता-पिता (Parent )  के लिए प्रतिकूल हो गया है, वह अब आश्रय नहीं रह जाता; यह अन्याय का स्थल बन जाता है. न्यायालयों को ‘पारिवारिक गोपनीयता’ की आड़ में इस मौन पीड़ा को जारी नहीं रहने देना चाहिए.

'बुजुर्ग Parent की उपेक्षा और क्रूरता अनुच्छेद 21 का उल्लंघन'

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा रिट याचिका (सिविल) संख्या 193/2016, अश्विनी कुमार बनाम भारत संघ एवं अन्य में व्यक्त की गयी चिंता को भी रेखांकित किया गया:

हमारे संविधान की प्रस्तावना में “सामाजिक न्याय” को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया है और अच्छे कारण से भी, क्योंकि यह न्याय का शायद सबसे महत्वपूर्ण और सार्थक रूप है. 26 नवंबर, 2018 को संविधान दिवस पर अपने संबोधन में भारत के माननीय राष्ट्रपति ने इस बात पर बल दिया कि सामाजिक न्याय हमारे राष्ट्र निर्माण की कसौटी बना हुआ है. हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा न्याय की अवधारणा 1949 में (जब संविधान सभा में बहस हुई थी) उतनी ही मान्य थी जितनी आज है. लेकिन, समय बदलने के साथ, कई ऐसी परिस्थितियाँ सामने आई हैं जो 1949 में मौजूद नहीं थीं और शायद उस समय उनकी कल्पना भी नहीं की गई थी.

वृद्ध व्यक्तियों (Parent ) के अधिकार एक ऐसी उभरती स्थिति है जिसकी शायद हमारे संविधान निर्माताओं ने पूरी तरह से कल्पना नहीं की थी. इसलिए, जबकि संविधान के अनुच्छेद 39 में श्रमिकों, पुरुषों और महिलाओं के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बच्चों की कोमल आयु का उल्लेख है, तथा संविधान के अनुच्छेद 41 में बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और विकलांगता तथा अन्य अवांछनीय अभाव के मामलों में सार्वजनिक सहायता का उल्लेख है, वहीं वृद्धों (Parent ) के स्वास्थ्य या अभाव के समय उनके आश्रय तथा वास्तव में उनकी आयु के कारण उनकी गरिमा और भरण-पोषण का कोई विशेष उल्लेख नहीं है.

याचिकाकर्ता (Parent ) ने गहरी पीड़ा और व्यथा के साथ बताया कि कैसे उसके अपने बेटों ने उसे शारीरिक और भावनात्मक आघात पहुँचाया. उसने आरोप लगाया कि वे उसे शारीरिक रूप से काटने तक चले गए और अपने हाथों लगी चोटों को प्रदर्शित किया. इस भयावह आचरण के बावजूद, याचिकाकर्ता (Parent ) ने एक पिता के क्षमाशील हृदय के साथ कहा कि अपनी संपत्ति के अधिग्रहण के बदले प्राप्त मुआवजे की राशि में से, वह पूरी तरह से अपनी इच्छा से, अपने बेटों के साथ एक हिस्सा साझा करेगा.

 “बेटों ने इस न्यायालय के समक्ष बिना शर्त माफी मांगी और आश्वासन दिया है कि भविष्य में ऐसा कोई दुर्भाग्यपूर्ण आचरण नहीं होगा. रिकॉर्ड यह भी दर्शाता है कि याचिकाकर्ता ने अपने बेटों द्वारा किए गए अत्याचारों के बारे में पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी, जिसके बाद पंचायत के हस्तक्षेप से सौहार्दपूर्ण समझौता हुआ.”

राज्य प्रतिवादियों की ओर से उपस्थित अतिरिक्त मुख्य स्थायी अधिवक्ता अंबरीश शुक्ला ने कहा कि कुल निर्धारित मुआवजा राशि 21,17,758/- रुपये है. यदि यह न्यायालय यह निर्देश देता है कि उक्त राशि पूरी तरह से याचिकाकर्ता (Parent ), जो अर्जित संपत्ति का निर्विवाद स्वामी है, के पक्ष में जारी की जाए, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है.

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि भविष्य में बेटों ने कोई हस्तक्षेप किया तो याची (Parent )  को पुनः न्यायालय में जाने की स्वतंत्रता होगी और न्यायालय ‘कड़े’ आदेश पारित करेगा.

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