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125 CrPC के तहत बालिग बेटी को भरण-पोषण नहीं दे सकते: HC

125 CrPC के तहत बालिग बेटी को भरण-पोषण नहीं दे सकते: HC

बालिग अविवाहित बेटी को केवल धारा 125 CrPC के तहत भरण-पोषण नहीं दिया जा सकता. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मेंटेनेंस के मामलों में फैमिली कोर्ट की टेरेटरी पर विचार करते हुए यह कमेंट किया और कहा है कि फैमिली कोर्ट CrPC और हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम 1956 दोनों के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हैं. कोर्ट ने कहा कि ऐसे दावों का परीक्षण अधिनियम 1956 की धारा 20(3) के तहत उचित दीवानी प्रक्रिया और साक्ष्य मानकों को लागू करते हुए किया जाना चाहिए न कि संक्षिप्त कार्यवाही के आधार पर.

यह विवाद तब उत्पन्न हुआ जब एक बेटी ने बालिग होने के बाद भी अपने पिता अनुराग पांडेय से भरण-पोषण की मांग करते हुए पारिवारिक न्यायालय में धारा 125 CrPC के तहत एक आवेदन दायर किया. फैमिली कोर्ट ने कार्यवाही को दीवानी मुकदमे में बदले बिना हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) का हवाला देकर दावे को स्वीकार कर लिया. पिता ने हाई कोर्ट में फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी.

याची के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट ने सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना धारा 125 CrPC के तहत संक्षिप्त कार्यवाही में 1956 अधिनियम की धारा 20 (3) के तहत भरण-पोषण प्रदान करके अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है.

यह भी तर्क दिया गया कि फैमिली कोर्ट ने अभिलाषा बनाम प्रकाश एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून की गलत व्याख्या की है. इसमें धारा 125 CrPC के तहत तत्काल राहत और 1956 अधिनियम की धारा 20 के तहत व्यापक अधिकारों के बीच स्पष्ट अंतर किया गया था.

कोर्ट ने फैमिली कोर्ट एक्ट 1984 की धारा 7, 10, 18 और 19 में दी गयी व्याख्या में पाया कि फैमिली कोर्ट दोहरी अधिकारिता (सिविल और आपराधिक दोनों) का प्रयोग करते हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि कार्यवाही CrPC के तहत हो रही है या सिविल कानून के तहत. अभिलाषा बनाम प्रकाश का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि

” CrPC की धारा 125 का उद्देश्य और लक्ष्य संक्षिप्त कार्यवाही में आवेदक को तत्काल राहत प्रदान करना है. अधिनियम 1956 की धारा 3 (बी) के साथ धारा 20 के तहत प्राप्त अधिकार में एक बड़ा अधिकार निहित है, जिसका निर्धारण सिविल न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है.”

कोर्ट ने कहा कि यद्यपि फैमिली कोर्ट 1956 के अधिनियम की धारा 20 के तहत एक वयस्क अविवाहित पुत्री को भरण-पोषण प्रदान कर सकते हैं ऐसी राहत का निर्णय सिविल प्रक्रिया के अनुसार किया जाना चाहिए न कि धारा 125 CrPC के तहत संक्षिप्त कार्यवाही के माध्यम से. इस बात पर भी जोर दिया कि मुकदमों की अधिकता से बचने के लिए धारा 125 CrPC के तहत आवेदनों को धारा 20(3) के तहत मुकदमों में बदला जा सकता है. शर्त है कि उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए.

फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए हाई कोर्ट ने मामले को संबंधित फैमिली कोर्ट को वापस भेज दिया और निर्देश दिया कि बेटी को धारा 125 CrPC के तहत अपने आवेदन को 1956 के अधिनियम की धारा 20(3) के तहत मुकदमों में बदलने की अनुमति दी जाए. कोर्ट ने निर्देश दिया कि मामले का निपटारा अधिमानतः छह महीने के भीतर उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए पूरा किया जाय.

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125 CrPC की अर्जी खारिज होने के बाद धारा 144 की दूसरी अर्जी पर चल रही केस कार्यवाही पर रोक

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधान न्यायाधीश परिवार अदालत सोनभद्र के समक्ष धारा 144 बी एनएसएस के तहत याची पति के खिलाफ चल रही केस कार्यवाही पर रोक लगा दी है और याची की पत्नी व बच्चे को नोटिस जारी की है. याचिका की अगली सुनवाई 23 सितंबर को होगी.

यह आदेश जस्टिस नंद प्रभा शुक्ला ने शिमांशु सिंह की याचिका पर दिया है. याचिका पर अधिवक्ता अक्षय रघुवंशी व ऋतेश कुमार सिंह ने बहस की.इनका कहना था कि याची की पत्नी ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में गुजारा भत्ता के लिए परिवार अदालत में वाद दायर किया जो साक्ष्य के अभाव व वादी के उपस्थित न होने के कारण खारिज हो गया.

पत्नी ने आदेश वापसी की अर्जी नहीं दी और धारा 144 बीएनएसएस में नया केस दाखिल किया. जिस पर कोर्ट ने 30 अगस्त 24 को सम्मन जारी किया है. याचिका में पूरी केस कार्यवाही को रद करने की मांग की गयी है.

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